1. Aadhaar - आधार - Premchand
  2. Aakhiri Tohfa - आख़िरी तोहफ़ा - Premchand
  3. Amrit - अमृत - Premchand
  4. Andher - अन्धेर - Premchand
  5. Anaath Ladki - अनाथ लड़की - Premchand
  6. Apni Karni - अपनी करनी - Premchand
  7. Aatmaram - आत्माराम - Premchand
  8. AatmSangeet - आत्म-संगीत - Premchand
  9. Banka Zamindar - बाँका जमींदार - Premchand
  10. Bade Ghar Ki Beti - बड़े घर की बेटी - Premchand
  11. Bohni - बोहनी - Premchand
  12. Boodi Kaaki - बूढ़ी काकी - Premchand
  13. Doosri Shaadi - दूसरी शादी - Premchand
  14. Durga Ka Mandir - दुर्गा का मन्दिर - Premchand
  15. Ghar jamai - घर जमाई - Premchand
  16. Gulli Danda - गुल्‍ली डंडा - Premchand
  17. HindiAudioBooks
  18. Idgaah - ईदगाह - Premchand
  19. Isteefa - इस्तीफा - Premchand
  20. Jhaanki - झांकी - Premchand
  21. Jyoti - ज्‍योति - Premchand
  22. Jyotishi Ka Naseeb - R.K Narayan
  23. Kaushal - कौशल़ - Premchand
  24. Maa - माँ -Premchand
  25. Mandir Aur Masjid - मंदिर और मस्जिद - Premchand
  26. Mantr - मंत्र - Premchand
  27. Namak Ka Daroga - नमक का दारोगा - Premchand
  28. Nasihaton Ka Daftar - नसीहतों का दफ्तर - Premchand
  29. Neki - नेकी - Premchand
  30. Nirvaasan - निर्वासन - Premchand
  31. Patni Se Pati - पत्नी से पति - Premchand
  32. Parvat Yatra - पर्वत-यात्रा -Premchand
  33. Poos ki Raat - पूस की रात -Premchand
  34. Putra Prem - पुत्र-प्रेम - Premchand
  35. Prerna - प्रेरणा - Premchand
  36. Qatil - क़ातिल - Premchand
  37. Sabhyata ka rahasya - सभ्यता का रहस्य - Premchand
  38. Samasyaa - -Premchand
  39. Shaadi Ki Vajah - शादी की वजह - Premchand
  40. Sawa Ser Gehun - सवा सेर गेंहूँ - Premchand
  41. Swamini - स्‍वामिनी -Premchand
  42. Thakur Ka Kuan - ठाकुर का कुआँ - Premchand
  43. Udhaar - उद्धार - Premchand
  44. Vairagya - वैराग्य -Premchand
  45. Vijay - विजय -Premchand
  46. Vardaan - वरदान -Premchand
Welcome to audio short stories in hindi!! In this page you will be able to listen to open source audio of short stories from Community audio of archive.org. To listen to the audio just click on name of the story you want to listen from the left side menu. At present, we have audio of Premchand short stories and some of R K Narayan's translated works from Community audio(archive.org). **Please note that It takes sometime for the audio to load.
Vijay - Premchand

Hindi story Vijay by Premchand read by Anurag Sharma


विजय

शहज़ादा मसरूर की शादी मलका मख़मूर से हुई और दोनों आराम से ज़िन्दगी बसर करने लगे। मसरूर ढोर चराता, खेत जोतता, मख़मूर खाना पकाती और चरखा चलाती। दोनों तालाब के किनारे बैठे हुए मछलियों का तैरना देखते, लहरों से खेलते, बगीचे में जाकर चिड़ियों के चहचहे सुनते और फूलों के हार बनाते। न कोई फिक्र थी, न कोई चिन्ता थी।

लेकिन बहुत दिन न गुज़रने पाये थे उनके जीवन में एक परिवर्तन आया। दरबार के सदस्यों में बुलहवस खॉँ नाम का एक फ़सादी आदमी था। शाह मसरूर ने उसे नज़र बन्द कर रखा था। वह धीरे-धीरे मलका मख़मूर के मिज़ाज में इतना दाखिल हो गया कि मलका उसके मशविरे के बग़ैर कोई काम न करती। उसने मलका के लिए एक हवाई जहाज बनाया जो महज़ इशारे से चलता था। एक सेकेण्ड में हज़ारों मील रोज जाता ओर देखते-देखते ऊपर की दूनिया की खबर लाता। मलका उस जहाज़ पर बैठकर योरोप और अमरीका की सैर करती। बुलहवस उससे कहता, साम्राज्य को फैलाना बादशाहों का पहला कर्तव्य है। इस लम्बी-चौड़ी दुनिया पर कब्ज़ा कीजिए, व्यापार के साधन बढ़ाइये, छिपी हुई दौलत निकालिये, फौजें खड़ी कीजिए, उनके लिए अस्त्र-शस्त्र जुटाइये। दुनिया हौसलामन्दों के लिए है। उन्हीं के कारनामे, उन्हीं की जीतें याद की जाती हैं। मलका उसकी बातों को खूब कान लगाकर सुनती। उसके दिल में हौसले का जोश उमड़ने लगता। यहां तक कि अपना सरल-सन्तोषी जीवन उसे रूखा-फीका मालूम होने लगा।

मगर शाह मसरूर सन्तोष का पुतला था। उसकी जिन्दी के वह मुबारक लमहे होते थे जब वह एकान्त के कुंज में चुपचाप बैठकर जीवन और उसके कारणों पर विचार करता और उसकी विराटता और आश्चर्यों को देखकर श्रद्धा के भाव से चीख उठता-आह! मेरी हस्ती कितनी नाचीज हैं, उसे मलका के मंसूबों और हौसलों से ज़रा भी दिलचस्पी न थी। नतीजा यह हूआ कि आपस के प्यार और सच्चाई की जगह सन्देह पैदा हो गये। दरबारियों में गिरोह बनने लगे। जीवन का सन्तोष विदा हो गया। मसरूर को इन सब परेशानियों के लिए जो उसकी सभ्यता के रास्ते में बाधक होती थीं, धीरज न था। वह एक दिन उठा और सल्तनत मलका के सुपुर्द करके एक पहाड़ी इलाके में जा छिपा। सारा दरबार नयी उमंगों से मतवाला हो रहा था। किसी ने बादशाह को रोकने की कोशिश न की। महीनों, वर्षों हो गये, किसी को उनकी खबर न मिली।

मलका मख़मूर ने एक बड़ी फ्रौज खड़ी की और बुलहवस खां को चढ़ाइयों पर रवाना किया। उसने इलाके पर इलाके और मुल्क पर मुल्क जीतने शुरू किये। सोने-चांदी और हीरे-जवाहरात के अम्बार हवाई जहाजों पर लदकर राजधानी को आगे लगे।

लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि इन रोज-ब-रोज बढ़ती हुई तरक्कियों से मुल्क के अन्दरूनी मामलों में उपद्रव खड़े होने लगे। वह सूबे जो अब हुक्म के ताबेदार थे, बग़ावत के झण्ड़े करने लगे। कर्णसिंह बुन्देला एक फ्रौज लेकर चढ़ आया। मगर अजब फ़ौज थी, न कोई हरबे-हथियार, न तोपें, सिपाहियां, के हाथों में बंदूक और तीर-तुपुक के बजाय बरबर-तम्बूरे और सारंगियां, बेले, सितार और ताऊस थे। तोपों की धनगरज सदाओं के दले तबले और मृदंग की कुमक थी। बम गोलों की जगह जलतरंग, आर्गन और आर्केस्ट्रा था। मलका मख़मूर ने समझा आन की आन में इस फ़ौज को तितर-बितर करती हूँ। लेकिन ज्यों ही उस की फ़ौज कर्णसिंह के मुकाबिले में रवना हुई, लुभावने, आत्मा को शान्ति पहुँचाने वाले स्वरों की वह बाढ़ आयी, मीठे और सुहाने गानों की वह बौछार हुई कि मलका की सेना पत्थर की मरतों की तरह आत्मविस्मृत होकर खड़ी रह गयी। एक क्षण में सिपाहियों की आंखें नशे में डूबने लगीं और वह हथेलियां बजा-बजा कर नाचने लगे, सर हिला-हिलाकर उछलने लगे, फिर सबके सब बेजान लाश की ताह गिर पड़े। और सिर्फ सिपाही ही नहीं, राजधानी में भी जिसके कानों में यह आवाजें गयीं वह बेहोश हो गया। सारे शहर में कोई जिन्दा आदमी नज़र न आता था। ऐसा मालूम होता था कि पत्थर की मूरतों का तिलस्म है। मलका अपने जहाज पर बैठी यह करिश्मा देख रही थी। उसने जहाज़ नीचे उतारा कि देखूं क्या माजरा है? पर उन आवाजों के कान में पहुँचते ही उसकी भी वही दशा हो गयी। वह हवाई जहाज पर नाचने लगी और बेहोश होकर गिर पड़ी। जब कर्णसिंह शाही महल के करीब जा पहुँचा और गाने बन्द हो गये तो मलका की आंखें खुजीं जैसे किसी का नशा टूट जाये। उसने कहा-मैं वही गाने सुनूंगी, वही राग, वही अलाप, वही लुभाने वाले गीत। हाय, वह आवाज़ें कहो गयीं। कुछ परवाह नहीं, मेरा राज जाये, पाट जाये, में वही राग सुनूंगी।

सिपाहियों का नशा भी टूटा। उन्होंने उसके स्वर मिलाकर कहा-हम वही गीत सुनेंगे, वही प्यारे-प्यारे मोहक राग। बला से हम गिरफ्तार होंगे, गुलामी की बेड़ियां पहनेंगे, आजादी से हाथ धोयेंगे पर वही राग, वही तराने वही तानें, वही धुनें।

सूबेदार लोचनदास को जब कर्णसिंह की विजय का हाल मालूम हुआ तो उसने भी विद्रोह करने की ठानी। अपनी फौज लेकर राजधानी पर चढ़ दौड़ा। मलका ने अबकी जान-तोड़ मुकाबला करने की ठानी। सिपाहियों को खूब ललकारा ओर उन्हें लोचदास के मुकाबले में खड़ा किया मगर वाह री हमलावन फौज! न कहीं सवार, न कहीं प्यादे, न तोप, न बन्दूक, न हरबे, न हथियार, सिपाहियों की जगह सुन्दर नर्तकियों के गोल थे और थियेटर के एक्टर। सवारों की जगह भांडों और बहुरूपियों के गोल। मोर्चो की जगह तीतर और बटेरों के जोड़ छूटे हुए थे तो बन्दूक की जगह सर्कस ओर बाइसकोप के खेमे पढ़े थे। कहीं हीरे-जवाहरात अपनी आब-ताब दिखा रहे थे, कहीं तरह-तरह के चरिन्दों-परिन्दों की नुमाइश खुली हुई थी। मैदान के एक हिस्से में धरती की अजीब-अजीब चीजें, झने और बर्फिस्तानी चोटियां और बर्फ के पहाढ़, पेरिस का बाजार, लन्दन का एक्स्चेंज या स्टन की मंडियां, अफ्रीका के जंगल, सहारा के रेगिस्तान, जापान की गुलकारियां, चीन के दरियाई शहर, दक्षिण अमरीका के आदमखोर, क़ाफ़ की परियां, लैपलैण्ड के सुमूरपोश इन्सान और ऐसे सेकड़ों विचित्र आकर्षक दृश्य चलते-फिरते दिखायी पड़ते थे। मलका की फौज यह नज्ज़ारा देखते ही बेसुध होगर उसकी तरफ दौड़ी। किसी को सर-पैर का खयाल न रहा। लोगों ने बन्दुकें फेंक दीं, तलवारें और किरचें उतार फेंकीं और बेतहाशा इन दृश्यों के चारों तरफ जमा हो गये। कोई नाचने वालियों की मीठी अदाओं ओर नाजुक चलन पर दिल दे बैठा, कोई थियेटर के तमाशों पर रीझा। कुछ लोग तीतरों और बटेरों के जोड़ देखने लगे और सब के सब चित्र-लिखित-से मन्त्रमुग्ध खड़े रह गये। मलका अपने हवाई जहाज पर बैठी कभी थियेटर की तरफ जाती कभी सर्कस की तरफ दौड़ती, यहां तक कि वह भी बेहोश हो गयी।

लोचनदास जब विजय करता हुआ शाही महल में दाखिल हो गया तो मलका की आंखें खुलीं। उसने कहा-हाय, वह तमाशे कहां गये, वह सुन्दर-सुन्दर दृश्य, वह लुभावने दृश्य कहां गायब हो गये, मेरा राज जाये, पाट जाये लेकिन मैं यह सैर जरूर देखूँगी। मुझे आज मालूम हुआ कि ज़िन्दगी में क्या-क्या मज़े हैं!

सिपाही भी जागे। उन्होने एक स्वर से कहा-हम वही सैर और तमाशे देखेंगे, हमें लड़ाई-भिड़ाई से कुछ मतलब नहीं, हमको आज़ादी की परवाह नहीं, हम गुलाम होकर रहेंगे, पैरों में बेड़ियां पहनेंगे पर इन दिलफरेबियों के बगैर नहीं रह सकेंगे।

मलका मख़मूर को अपनी सल्तनत का यह हाल देखकर बहुत दु:ख होता। वह सोचती, कया इसी तरह सारा देश मेरे हाथ से निकल जाएगा? अगर शाह मसरूर ने यों किनारा न कर लिया होता तो सल्तनत की यह हालत कभी न होती। क्या उन्हें यह कैफियतें मालूम न होंगी। यहां से दम-दम की खबरें उनके पास आ जाती हैं मगर जरा भी जुम्बिश नहीं करते। कितने बेरहम हैं। खैर, जो कुछ सर पर आयेगी सह लूँगी पर उनकी मिन्नत न करूँगी।

लेकिन जब वह उन आकर्षक गानों को सुनती और दूश्यों को देखती तो यह दुखदायी विचार भूल जाते, उसे अपनी जिन्दगी बहुत आनन्द की मालूम होती।

बुलहवस खां ने लिखा-मैं देश्मनों से घिर गया हूँ, नफरत अली और कीन खां और ज्वालासिंह ने चारों तरफ से हमला शुरू कर दिया है। तब तक ओर कुमक न आये, में मजबूर हूँ। पर मलका की फौज यह सैर और गाने छोड़कर जाने पर राजी न होती थी।

इतने में दो सूबेदसरों ने फिर बग़ावत की। मिर्जा शमीम और रसराजसिंह दोनों एक होकर राजधानी पर चढ़े। मलका की फौज में अब न लज्जा थी न वीरता, गाने-बजाने और सैरै-तमाशे ने उन्हें आरामतलब बना दिया था। बड़ी-बड़ी मुश्किलों से सज-सजा कर मैदान में निकले। दुश्मन की फौज इन्तजार करती खड़ी थी लेकिन न किसी के पास तलवार थी, न बन्दुक, सिपाहियों के हाथों में फूलों के खुलदस्ते थे, किसी के हाथ में इतर की शीशियां, किसी के हाथ में गुलाब के फ़व्वाहर, कहीं लवेण्डर की बोतलें, कहीं मुश्क वगैरह की बहार-सारा मैदान अत्तार की दूकान बना हुआ था। दूसरी तरफ रसराज की सेना थी। उन सिपाहियों के हाथों में सोने के तश्त थे, जरबफ्त के खनपेशों से ढके हुए, किसी में बर्फी और मलाई थी, किसी में कोरमे और कबाब, किसी में खुबानी और अंगूर, कहीं कश्मीर की नेमतें सजी हुई थीं, कहीं इटली की चटनियों की बहार थी और कहीं पुर्तगाल और फ्रांस की शराबें शीशियों में महक रही थीं।

मलका की फौज यह संजीवनी सुगन्ध सूंघते ही मतवाली हो गयी। लोगों ने हथियार फेंक दिये और इन स्वादिष्ट पदार्थें की ओर दौड़े, कोई हलुवे पर गिरा, और कोई मलाई पर टूटा, किसी ने कोरमे और कबाब पर हाथ बढ़ाये, कोई खुबानी और अंगूर चखने लगा, कोई कश्मीरी मुरब्बों पर लपका, सारी फौज भिखमंगों की तरह हाथ फैलाये यह नेमतें मांगती थी और बेहद चाव से खाती थी। एक-एक कौर के लिए, एक चमचा फीरनी के लिए, शराब के एक प्याले के लिए खुशामदें करते थे, नाकें रगड़ते थे, सिजदे करते थे। यहां तक कि सारी फौज पर एक नशा छा गया, बेदम होकर गिर पड़ी। मलका भी इटली के मरब्बों के सामने दामन फैला-फैलाकर मिन्नतें करती और कहती थी कि सिर्फ-एक लुकमा और एक प्याला दो और मेरा राज लो, पाट लो, मेरा सब कुछ ले लो लेकिन मुझे जी-भर खा-पी लेने दो। यहां तक कि वह भी बेहोश होकर गिर पड़ी।

मलका की हालत बेहद दर्दनाक थी। उसकी सल्तनत का एक छोटा-सा हिस्सा दुश्मनों के हाथ से बचा था। उसे एक दम के लिए भी इस गुलामी से नजात न मिलती। की कर्णसिंह के दरबार में हाजिर होती, कभी मिर्जा शमीम की खुशामद करती, इसके बगैर उसे चैन न आता। हां, जब कभी इस मुसाहिबी और जिल्लत से उसकी तबियत थक जाती तो वह अकेले बैठकर घंटों रोती और चाहती कि जाकर शाह मसरूर को मना लाऊं। उसे यकीन था कि उनके आते ही बागी काफूर हो जायेंगे पर एक ही क्षण में उसकी तबियत बदल जाती। उसे अब किसी हालत पर चैन आता था।

अभी तक बुलहवस खां स्वामिभक्ति में फर्क न आया था। लेकिन जब उसने सल्तनत की यह कमजोरी देखी तो वह भी बगावत कर बैठा। उसकी आजमाई हुई फौज के मुकाबले में मलका की फौज क्या ठहरती, पहले ही हमले में क़दम उखड़ गये। मलका खुद गिरफ्तार हो गयी। बुलहवस खां ने उसे एक तिलस्माती कैदखाने में बंद कर दिया। सेवक वे स्वामी बनद बैठा।

यह कैदखाना इतना लम्बा-चौड़ा था कि कैदी कितना ही भागने की कोशिश करे, उसकी चहारदीवारी से बाहर नहीं निकल सकता था। वहां सन्तरी और पहरेदार न थे लेकिन वहां की हवा में एक खिंचाव था। मलका के पैरों में न बेड़ियां थी न हाथों में हथकड़ियां लेकिन शरीर का अंग-प्रत्यंग तारों से बंधा हुआ था। वह अपनी इच्छा से हिल भी न सकती थी। वह अब दिन के दिन बैठी हुई जमीन पर मिट्टी के घरौंदे बनाया करती और समझती यह महल है। तरह-तरह के स्वांग भरती और समझती दुनिया मुझे देखकर लट्टू हो जाती है। पत्थर टुकड़ों से अपना शरीर गूंध लेती ओर समझती कि अब हूरें भी मेरे सामने मात हैं। वह दरख्तों से पूछती, मैं कितनी खूबसूरत हूँ। शाखों पर बैठी चिड़ियों से पूछती, हीरे-जवाहरात का ऐसा गुलबन्द तुमने देखा है? मिट्टी की ठीकरों का अम्बार लगाती और आसमान से पूछती, इतनी दौलत तुमने देखी है?

मालूम नहीं, इस हालत में कितने दिन गुजर गये। मिर्जा शमीम, लाचनदास वगैरह हरदम उसे घेरे रहते थे। शायद वह उससे डरते थे। ऐसा न हो, यह शाह मासरूर को कोई संदेशा भेज दे। क़ैद में भी उस पर भरोसा न था। यहां तक कि मलका की तबियत इस क़ैद से बेज़ार हो गयी, वह निकल भागने की तदबीरें सोचने लगी।

इसी हालत में एक दिन मलका बैठी सोच रही थी, मैं क्या हो गई ? जो मेरे इशारों के गुलाम थे वह अब मेरे मालिक हैं, मुझे जिस कल चाहते हैं बिठाते हैं, जहां चाहते हैं घुमाते हैं। अफसोस, मेंने शाह मसरूर का कहना न माना, यह उसी की सजा है। काश, एक बार मुझे किसी तरह अस क़ैद से छुकारा मिल जाता तो मैं चलकर उनके पैरों पर सिर रख देती और कहती, लौंडी की खता माफ कीजिए। मैं खून के आंसु रोती और उन्हें मना लाती और फिर कभी उनके हुक्म से इनकार न करती। मैंने इस नमकहराम बुलहवस खां की बातों में पड़कर उन्हें निर्वासित कर दिया, मेरी अक्ल कहॉँ चली गयी थी। यह सोचते-सोचते मलका रोने लगी कि यकायक उसने देखा, सामने एक खिले हुए मुखड़े वाला गम्भीर पुरूष सादा कपड़े खड़ा है। मलका ने आश्चर्यचकित होकर पूछा-आप कौन हैं? यहां मैंने आपको कभी नहीं देखा।

पुरूष-हां, इस कैदखाने में मैं बहुत कम आता हूँ। मेरा काम है कि जब कैदियों की तबियत यहां से बेजार हो तो उन्हें यहां से निकलने में मदद दूं।

मलका-आपका नाम?

पुरूष-संतोखसिंह।

मलमा-आप मुझे इस कैद से छुटकारा दिला सकते हैं?

संतोख-हां, मेरा तो काम ही यह है, लेकिन मेरी हिदायतों पर चलना पड़ेगा।

मलका-मैं आपके हुक्म से जौ-भर भी इधर-उधर न करूंगी, खुदा के लिए मुझे यहां से जल्द से जल्द ले चलिए, मैं मरते दम तक आपकी शुक्रगुजार रहूंगी।

संतोख- आप कहां चलना चाहती हैं?

मलका-मैं शाह मसरूर के पास जाना चाहती हूँ। आपको मालूम है वह आलकल कहां हैं?

संतोख-हाँ, मालूम है, मैं उनका नौकर हूँ। उन्हीं की तरफ से मैं इस काम पर तैनात हूँ?

मलका-तो खुदा के वास्ते मुझे जल्द ले चलिए, मुझे अब यहां एक घड़ी रहना जी पर भारी हो रहा है।

संतोख-अच्छा तो यह रेशमी कपड़े और यह जवाहरात और सोने के जेवन उतारकर फेंक दो। बुलहवस ने इन्हीं जंजीरों से तुम्हें जाकड़ दिया है। मोटे से मोटा कपड़ा जो मिल सके पहन लो, इन मिट्टी के घरौंदों को गिरा दो। इतर और गुलाब की शीशियां, साबुन की बट्टियां, और यह पाउडर के डब्बे सब फेंक दो।

मलका ने शीशियों और पाउडर के तड़ाक-तड़ाक पटक दिये, सोने के जेवरों को उतारकर फेंक दिया कि इतने में बुलहवस खां धाड़ें मार कर रोता हुआ आकर खड़ा हुआ और हाथ बांधकर कहने लगा-दोनों जहानों की मलका, मैं आपका नाचीज़ गुलाम हूँ, आप मुझसे नाराज हैं?

मलका ने बदला लेने के अपने जोश में मिट्टी के घरौंदों को पैरों से ठुकरा दिया, ठीकरों के अम्बार को ठोकरें मारकर बिखेर दिया। बुलहवस के शरीर का एक-एक अंग कट-कटकर गिरने लगा। वह बेदम होकर जमीन पर गिर पड़ा और दम के दम में जहन्नुम रसीद हुआ। संतोखसिंह ने मलका से कहा-देखा तुमन? इस दुश्मन को तुम कितना डरावना समझती थीं, आन की आन में खाक में मिल गया।

मलका-काश, मुझे यह हिकमत मालूम होती तो मैं कभी की आजाद हो जाती। लेकिन अभी और भी तो दुश्मन हैं।

संतोख-उनको मारना इससे भी आसान है। चलो कर्णसिंह के पास, ज्यों ही वह अपना सुर अलापने लगे और मीठी-मीठी बातें करने लगे, कानों पर हाथ रख लो, देखो, अदृश्य के पर्दे से फिर चीज सामने आती है।

मलका कर्णसिंह के दरबार में पहुँची। उसे देखते ही चारों तरफ से धुपद और तिल्लाने के वार होने लगे। पियानो बजने लगे। मलका ने दोनों कान बन्द कर लिये। कर्णसिंह के दरबार में आग का शोला उठने लगा। सारे दरबारी जलने लगे, कर्णसिंह दौड़ा हुआ आया और बड़े विनय-पूर्वक मलका के पैरों पर गिरकर बोला-हुजूर, अपने इस हमेशा के गुलाम पर रहम करें। कानों पर से हाथ हटा कर वर्रा इस गरीब की जान पर बन आयेगी। अब कभी हुजूर की शान में यह गुस्ताखी न होगी।

मलका ने कहा-अच्छा, जा तेरी जां-बख्शी की। अब कभी बग़ावत न करना वर्ना जान से हाथ धोएगा।

कर्णसिंह ने संतोखसिंह की तरफ प्रलय की आंखों से देखकर सिर्फ इतना कहा-‘जालिम, तुझे मौत भी नहीं आयी’ और बेतहाशा गिरता-पड़ता भागा। सेतोखसिंह ने मलका से कहा-देखा तुमने, इनको मारना कितना आसान था? अब चलो लोचनदान के पास। ज्योंही वह अपने करिश्मे दिखाने लगे, दोनों आंखें बन्द कर लेना।

मलका लोचनदास के दरबार में पहुँची। उसे देखते ही लोचन ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना शुरू किया। ड्रामे होने लगे, नर्तकों ने थिरकना शुरू किया। लालो-जमुरर्द की कश्तियां सामने आने लगीं लेकिन मलका ने दोनों आंखें बन्द कर लीं।

आन की आन में वह ड्रामे और सर्कस और नाचनेवालों के गिरोह खाक में मिल गये। लोचनदास के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं, निराशापूर्ण धैर्य के साथ चिल्ला-चिल्लकर कहने लगा, यह तमाशा देखो, यह पेरिस के क़हवेखाने, यह मिस एलिन का नाच है। देखो, अंग्रेज रईस उस पर कितनी उदारता से सोने और हीरे-जवाहरात निछावर कर रहे हैं। जिसने यह सैर-तमाशे ने देखे उसकी जिन्दगी मौत से बदतर। लेकिन मलका ने आंखें न खोलीं।

तब लोचनदास बदहवास और घबराया हुआ, बेद के दरख्त की तरह कांपता हुआ मलका के सामने आ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर बोला-हुजूर, आंखें खोलें। अपने इस गुलाम पर रहम करें, नहीं तो मेरी जान पर बन जाएगी। गुलाम की गुस्ताखियां माफ़ फीरमायें। अब यह बेअदबी न होगी।

मलका ने कहा-अच्छा जा, तेरी जांबख्शी की लेकिन खबरदार, अब सर न उठाना नहीं तो जहन्नुम रसीद कर दूंगी।

लोचनदास यह सुनते ही गिरता-पड़ता जान लेकर भागा। पीछे फिरकर भी न देखा। संतोखसिंह ने मलका से कहा-अब चलो मिर्जा शमीम और रसराज के पास। वहॉँ एक हाथ से नाक बन्द कर लेना और दूसरे हाथ से खानों के तश्त को जमीन पर गिरा देना।

मलका रसराज और शमीम के दरबार में पहुँचीं उन्होंने जो संतोख को मलका के साथ देखा तो होश उड़ गये। मिर्जा शमीम ने कस्तूरी और केसर की लपटें उड़ाना हुरू कीं। रसराज स्वादिष्ट खानों के तश्त सजा-सजाकर मलका के सामने लाने लगा, और उनकी तारीफ करने लगा-यह पुर्तगात की तीन आंच दी हुई शराब है, इसे पिये तो बुड्डा भी जवान हो जाये। यह फ्रांस का शैम्पेन है, इसे पिये तो मुर्दा जिन्दा हो जाय। यह मथुरा के पेड़े हैं, उन्हें खाये तो स्वर्ग की नेमतों को भूल जाय।

लेकिन मलका ने एक साथ से नाक बन्द कर ली और दूसरे हाथ से उन तश्तों को लमीन पर गिरा दिया और बोतलों को ठोकरें मार-मारकर चूर कर दिया। ज्यों-ज्यों उसकी ठोकरें पड़ती थीं, दरबार के दरबारी चीख-चीख कर भागते थे। आखिर मिर्जा शमीम और रसराज दोनों परेशान और बेहाल, सर से खून जारी, अंग-अंग टूटा हुआ, आकर मलका के सामने खड़े हो गये और गिड़गिड़ाकर बोले-हुजूर, गुलामों पर रहम करें। हुजूर की शान में जो गुस्ताखियां हुई हैं उन्हें मुआफ फरमायें, अब फिर ऐसी बेअदबी न होगी।

मनका ने कहा-रसराज को मैं जान से माना चाहती हूँ। उसके कारण मुझे जलील होना पड़ा।

लेकिन संतोखसिंह ने मना किया-नहीं, इसे जान से न मारिये। इस तरह का सेवक मिलना कठिन है। यह आपके सब सूबेदार अपने काम में यकता हैं सिर्फ इन्हें काबू में रखने की जरूरत है।

मलका ने कहा-अच्छा जाओ, तुम दोनों की भी जां-बख्शी की लेकिन खबरदार, अब कभी उपद्रव मत खड़ा करना वर्ना तुम जानोगे।

दोनों गिरत-पड़ते भागे, दम के दम में नजरों से ओझल हो गये।

मलका की रिआया और फौज ने भेंटे दीं, घर-घर शादियाने बजने लगे। चारों बागी सूबेदार शहरपनाह के पास छापा मारने की घात में बैठ गये लेकिन संतोखसिंह जब रिआया और फौज को मसजिद में शुक्रिए की नमाज अदा करने के लिए ले गया तो बागियों को कोई उम्मीद न रही, वह निराश होकर चले गये।

जब इन कामों से फुर्सत हुई तो मलका ने संतोखसिंह से कहा-मेरे पास अलफ़ाज नहीं में इतनी ताकत है कि मैं आपके एहसानों का शुक्रिया अदा कर सकूँ। आपने मुझे गुलामी ताकत से छुटकारा दिया। में आखिरी दम तक आपका जस गाऊंगी। अब शाह मसरूर के पास मुझे ले चलि, मैं उनकी सेवा करके अपनी उम्र बसर करना चाहती हूँ। उनसे मुंह मोड़कर मैंने बहुत जिल्लत और मसीबत झेली। अब अभी उनके कदमों से जुदा न हूँगी।

संतोखसिंह-हां, हां, चलिए मैं तैयार हूँ लेकिन मंजिल सख्त है, घबराना मत।

मलका ने हवाई जहाज मंगाया। पर संतोखसिंह ने कहा-वहां हवाई जहाज का गुजर नहीं है, पेदल पड़ेगां मलका ने मजबूर होकर जहाज वापस कर दिया और अकेले अपने स्वाती को मनाने चली।

वह दिन-भर भूखी-प्यासी पैदल चलती रही। आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा, प्यास से गले में कांटे पड़ने लगे। कांटों से पैर छलनी हो गये। उसने अपने मार्ग-दर्शक से पूछा-अभी कितनी दूर है?

संतोख-अभी बहुत दूर है। चुपचाप चली आओ। यहां बातें करने से मंजिल खोटी हो जाती है।

रात हुई, आसमान पर बादल छा गये। सामने एक नदी पड़ी, किश्ती का पता न था। मलका ने पूछा-किश्ती कहां है?

संतोष ने कहा-नदी में चलना पेड़गा, यहां किश्ती कहां है।

मलका को डर मालूम हुआ लेकिन वह जान पर खेलकर दरिया में चल पड़ी। मालूम हुआ कि सिर्फ आंख का धोखा था। वह रेतीली जमीन थी। सारी रात संतोखसिंह ने एक क्षण के लिए भी दम न लिया। जब भोर का तारा निकल आया तो मलका ने रोकर कहा-अभी कितनी दूर है, मैं तो मरी जाती हूँ। संतोखसिंह ने जवाब दिया-चूपचान चली आओ।

मलका ने हिम्मत करके फिर कदम बढ़ाये। उसने पक्का इरादा कर लिया था कि रास्ते में मर ही क्यों न जाऊँ पर नाकाम न लौटूँगी। उस कैद से बचने के लिए वह कड़ी मुसीबतें झेलने को तैयार थी।

सूरज निकला, सामने एक पहाड़ नजर आया जिसकी चोटियां आसमान में घुसी हुई थीं। संतोखसिंह ने पूछा-इसी पहाड़ी की सबसे ऊंची चोटी पर शाह मसरूर मिलेंगे, चढ़ सकोगी?

मलका ने धीरज से कहा-हां, चढ़ने की कोशिश करूंगी।

बादशाह से भेंट होने की उम्मीद ने उसके बेजान पैरों में पर लगा दिए। वह तेजी से कदम उठाकर पहाड़ों पर चढ़ने लगी। पहाड़ के बीचों बीच आत-आते वह थककर बैठ गयी, उसे ग़श आ गया। मालूम हुआ कि दम निकल रहा है। उसने निराश आंखों से अपने मित्र को देखा। संतोखसिंह ने कहा-एक दफा और हिम्मत करो, दिल में खुदा की याद करो मलका ने खुदा की याद की। उसकी आंखें खुल गयीं। वह फुर्ती से उठी और एक ही हल्ले में चोटी पर जा पहुँची। उसने एक ठंडी सांस ली। वहां शुद्ध हवा में सांस लेते ही मलका के शरीर में एक नयी जिंदगी का अनुभव हुआ। उसका चेहरा दमकने लगा। ऐसा मालूम होने लगा कि मैं चाहूँ तो हवा में उड़ सकती हूँ। उसने खुश होकर संतोखसिंह तरफ देखा और आश्चर्य के सागर में डूब गयी। शरीर वही था, पर चेहरा शाह मसरूर का था। मलका ने फिर उसकी तरफ अचरज की आंखों से देखा। संतोखसिंह के शरीर पर से एक बादल का पर्दा हट गया और मलका को वहां शाह मशरूर बड़े नजर आए-वही हल्का नीला कुर्ता, वही गेरुए रंग की तरह। उनके मुखमण्डल से तेज की कांति बरस रही थी, माथा तारों की तरह चमक रहा था। मलका उनके पैरों पर गिर पड़ी। शाह मसरूर ने उसे सीने से लगा लिया ।